मथुरा

कश्मीर में आतंक, टूरिज्म और नकली संवेदना की सच्चाई: सूर्य सागर महाराज

मथुरा। जम्मू कश्मीर के पहलगाम में हुए आतंकी हमले ने एक बार फिर उस नकली सहानुभूति के परदे को फाड़ दिया, जिसे “हम सब एक हैं” के दावों में छिपाया जाता रहा।इस हमले दर्जनों हिंदू श्रद्धालु आतंकियों की गोली का शिकार बने, कई जख्मी हुए। सोशल मीडिया पर कुछ ‘संवेदनशील’ कश्मीरी बयानों ने इस दांव-पेंच को और भी धारदार कर दिया। अब असल सवाल यह है—क्या ये आँसू आतंकी घटना की निंदा के हैं या घाटी में व्यवसाय ठप होने का मातम..?

गुजरात के जैन संत सूर्य सागर महाराज की दृष्टि में यह साफ है कि पिछले छह महीनों में केवल पहलगाम में 26 लाख से अधिक पर्यटक पहुंचे। अरबों रुपये का व्यापार—होटल बुकिंग, टैक्सी किराए, गाइड फीस, खानपान और हस्तशिल्प का सारा चक्का हिंदू तीर्थयात्रियों और सैलानों की कमाई से घूमता है। दिल्ली, मुंबई, जयपुर, चेन्नई के लोग छुट्टी में कश्मीर को ‘जन्नत’ समझकर आते हैं और उन्हीं के पैसों से घाटी की ‘शांति’ को रोज़ाना सींचा जाता है।हम एक शिक्षित समुदाय हैं, इसी कारण देशहित राष्ट्वादी सोच है हमारी और हम उस नीच मानसिकता—इस्लामोफोबिया—को अस्वीकार करते हैं जो इस्लाम धर्म को हीन समझती है। फिर भी पाकिस्तानी कट्टरता की सोच के तहत निर्दोष हिंदू पर्यटकों को ‘काफ़िर’ कहकर मारा जा रहा है।

प्रत्येक व्यक्ति कश्मीर का बहिष्कार करें और अगर यात्रा अवश्य करनी हो तो जम्मू में स्थित मां वैष्णो देवी और अमरनाथ के पवित्र ज्योतिर्लिंग की ही परिक्रमा करें। आप घाटी और पहाड़ों का प्राकृतिक सौंदर्य देखना चाहते हैं, तो हिमाचल प्रदेश के मार्ग से —लेह–लद्दाख—को चुनें, जहाँ आपको सुरक्षित और शांत अनुभव मिलेगा।”

“जब हिंदू मारे जाते हैं, तो रोने वाले सिर्फ इसलिए रोते हैं क्योंकि अब ‘बिज़नेस डाउन’ होगा।”
— सूर्य सागर महाराज
इस रोने में वैसा भाव नहीं है जो कश्मीरी पंडितों के लिए होता। जब उनकी वापसी या अलग कॉलोनी की बात उठती है, तो ‘डेमोग्राफिक चेंज’ का शोर मच जाता है और पुरानी आवाज़ों में तीव्रता आ जाती है। फिर भी, आज वही लोग देश के अन्य शहरों में कश्मीर के उत्पाद—शॉल, सेव, केसर, ड्राई फ्रूट—बेजोड़ रफ्तार से बेचते हैं, और उनका कोई विरोध नहीं करता।
भारतीय जनता ने कभी कश्मीरी मुसलमानों को पराया नहीं जाना; उन्हें रोजगार, समानता और सुरक्षा दी। जब आतंकवाद की सत्ता दिखती है, तो ‘बोका हुआ बयान’ आता है—“हमें आतंकवाद से नफरत है, लेकिन…” इस ‘लेकिन’ के भीतर ही ज़हर छिपा है जो एकजुट भारत को भीतर से खाता है।

अब नई जानकारी यह भी सामने आई है कि घाटी के स्थानीय लोग—दुकानदार, ठेले वाले, घोड़े वाले, नाव सवार—गुप्त रूप से आतंकवादियों की आपूर्ति, शरण और खबर–संवाद में मदद कर रहे थे। वे हिंदुओं के पैसे से अपनी दुकानें चलाते हैं और उसी धनराशि से आतंकी तंत्र को मजबूत करते हैं।

कश्मीर जाना आज ‘घूमने’ का बहाना नहीं, बल्कि आतंकवाद को फंड करने का विरासत बन चुका है।”
इन घड़ियाली आंसुओं को पहचानना आज की सबसे बड़ी ज़रूरत है। आतंकवाद का मुकाबला सिर्फ बंदूक और सुरक्षाबलों से नहीं, बल्कि सामाजिक–सांस्कृतिक बहिष्कार से भी होता है। असली संवेदना वही है जो पीड़ित के लिए हो, न कि ‘ग्राहक खोने’ पर रोने वाली नकली दया!

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