उत्तराखंड

संस्कारी नेता धामी सरकार हिलाने की जुगत में

‘प्रेम‘ के बहाने धामी को चित करने का दाव

 षड़यंत शुरू, राजनीतिक अस्थिरता राज्य हित में नहीं

गुणानंद जखमोला, वरिष्ठ पत्रकार

भाजपा भले ही बाहरी तौर पर संस्कारी पार्टी कहलाती हो, लेकिन इस पार्टी में संस्कारवान नेताओं को ठिकाने लगाने में जरा भी देर नहीं की जाती है। राज्य में पिछले 25 साल का इतिहास उठा कर देख लो, यहां सत्ता से गिराने के लिए औरंगजेब के जमाने के सभी षड़यंत्र रचे जाते हैं, बस हाथी के नीचे कुचलवाने के सिवाए। मैं इसे नेताओं की ‘पालिटिकल डेथ‘ नाम देता हूूं। सीएम धामी ने समय रहते भांप लिया और प्रेमचंद की बलि दे दी, वरना उनकी कुर्सी डगमगाने में भी कोई कसर नहीं बाकी थी। भाजपा को भाजपा से ही खतरा है, कांग्रेस के अधिकांश नेता तो मित्र विपक्ष की भूमिका में है। धामी कैबिनेट कुछ और बलि मांग रहा है। मसलन तोंदू और गंजे नेताओं की।

प्रेमचंद के खिलाफ पहाड़ियों का गुस्सा स्वःस्फूर्त था। मेयर चुनाव में शंभू पासवान को टिकट दिलाना और उसके पीछे मजबूती से खड़े होना भी एक अहम वजह रही। पहाड़ के लोगों को यह संदेश गया कि प्रेमचंद ऋषिकेश को अपनी बपौती समझने लगे हैं। एकाधिकार चाहते हैं। लोकतंत्र की यही खूबी है कि जब-जब नेता अहंकार में चूर होते हैं, जनता उन्हें पटक देती है। प्रेमचंद की परणति भी ऐसे ही हुई। विरोध की आड़ में भाजपा के एक गुट ने अंदरखाने से इस आग को हवा दी। प्रेम के कंधे पर रखकर निशाना सीएम धामी को बनाने का षड़यंत्र रचा गया; नाम दिया गया पहाड़-मैदान।

सब जानते हैं कि प्रेमचंद अग्रवाल को चार बार से विधायक पहाड़ियों ने बनाया। इतना विवाद होने के बावजूद पहाड़ी लोग उनके साथ होली पर नाच कर रहेे थे, जबकि बाहर बड़ी संख्या में पहाड़ी लोग नारेबाजी और प्रेमचंद का विरोध कर रहे थे। पहाड़-मैदान की खाई को खोदकर प्रदेश सरकार को अस्थिर करने की कवायद की गयी। सीएम धामी को देर से एहसास हुआ और इसके बाद दिल्ली दरबार की दौड़ लगी। दुष्यंत का आना संगठनात्मक बदलाव महज दिखावा था, असल बात तो कैबिनेट बदलाव और प्रेम की विदाई की पटकथा लिखी जा रही थी ताकि सीएम धामी पर मंडराते संकट के बादलों को दूर किया जा सके।

बड़ा सवाल यह है आखिर इस खेल के पीछे कौन है? जब त्रिवेंद्र सिंह रावत और तीरथ सिंह रावत को बदला गया, तब ‘उत्तराखंडियत’ की दुहाई नहीं दी गई। जब रमेश पोखरियाल निशंक को किनारे किया गया, तब भी कोई आवाज़ नहीं उठी। लेकिन जैसे ही प्रेमचंद अग्रवाल पर सवाल खड़े हुए, कुछ खास चेहरे अचानक ‘उत्तराखंडित और पहाड़-मैदान’ की बातें करने लगे। ये वही लोग हैं जो पर्दे के पीछे से मुख्यमंत्री पुष्कर सिंह धामी को कमजोर करने की चालें चल रहे हैं।

अब इन सवालों के जवाब को तलाशने की जरूरत है। क्या कांग्रेस के कुछ नेता इस आग में घी डाल रहे हैं? या फिर भाजपा के ही कुछ नेता और तथाकथित कलमवीर धामी सरकार को अस्थिर करने के लिए सक्रिय हो गए हैं? सवाल यह भी है कि क्या ‘उत्तराखंडियत’ की आड़ में वही ताकतें काम कर रही हैं, जो हमेशा से इस राज्य को क्षेत्रवाद और जातिवाद में बांटने की कोशिश करती आई हैं?

उत्तराखंड किसी एक वर्ग, क्षेत्र या जाति की जागीर नहीं है। मेरा मानना है कि धामी सरकार ने थोड़े बहुत फैसले तो राज्य हित में लिए हैं। मैं राज्य में राजनीतिक स्थिरता का पक्षधर हूं। इन 25 साल में हमने देखा है कि सीएम बदलने से प्रदेश की तकदीर और तस्वीर नहीं बदलेगी। इसके लिए जनता को बदलना होगा। जनता को अपनी ताकत का एहसास होना चाहिए और यह समझ कि क्या सही है और क्या गलत। जनता को समझना होगा कि यह पहाड़-मैदान की नहीं, बल्कि विकास बनाम षड्यंत्र की लड़ाई है।

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